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किसानों का खूनी संघर्ष
ग्रेटर नोएडा, संवाददाता : ग्रेटर नोएडा के गांव भट्ठा पारसौल में चार माह से चल रहे किसान आंदोलन ने शनिवार को खूनी संघर्ष का रूप ले लिया। दोनों तरफ से हुई गोलीबारी में दो पुलिसकर्मियों और दो किसानों की मौत हो गई। गौतमबुद्ध नगर के जिलाधिकारी दीपक अग्रवाल भी गोली लगने से जख्मी हो गए। पथराव में एसएसपी, सिटी मजिस्ट्रेट और सीओ को भी चोटें आई हैं। उग्र किसानों ने तीन सिपाहियों को बंधक बना रखा है। क्षेत्र में तनाव के चलते बड़ी संख्या में पुलिस तैनात कर दी गई है। किसान यमुना एक्सप्रेस-वे प्रोजेक्ट के लिए अधिग्रहीत की गई जमीन का मुआवजा बढ़ाने की मांग कर रहे हैं। इसके लिए वे 17 जनवरी, 2011 से भट्ठा गांव में धरना दे रहे हैं। शुक्रवार सुबह किसानों ने जहांगीरपुर तक बस चलाने के लिए रूट का सर्वे करने जा रहे रोडवेज के तीन कर्मचारियों को बंधक बना लिया था। कर्मचारियों की रिहाई को लेकर जिला प्रशासन की किसानों से वार्ता चल रही थी लेकिन किसान सीधे मुख्यमंत्री से वार्ता पर अड़े थे। शनिवार दिन में जिलाधिकारी दीपक अग्रवाल के पीएसी और पुलिस के साथ धरनास्थल पर पहुंचते ही किसान उग्र हो गए। उन्होंने पथराव शुरू कर दिया। बचाव में पुलिस ने लाठीचार्ज किया। इससे किसानों में भगदड़ मच गई और दोनों तरफ से फायरिंग शुरू हो गई। पैर में गोली लगने से जिलाधिकारी दीपक अग्रवाल घायल हो गए। घटना की सूचना पाकर आइजी रजनीकांत भी मौके पर पहुंच गए थे। गोलीबारी में आइजी के गनर मनोहर सिंह, सीओ सहना (बुलंदशहर) के गनर मनवीर सिंह और गौतमबुद्ध नगर के एक कांस्टेबल कालू की मौत हो गई। पुलिस की गोली लगने से भट्टा गांव का एक किसान राजवीर भी मारा गया। पथराव में एसएसपी सूर्यनाथ सिंह, सिटी मजिस्ट्रेट संजय चौहान, सीओ राहुल कुमार घायल हो गए। आधा दर्जन किसानों के भी घायल होने की खबर मिली है। घायलों को ग्रेटर नोएडा और बुलंदशहर के अस्पतालों में भर्ती कराया गया है। खबर लिखे जाने तक पुलिस और किसानों के बीच संघर्ष जारी था और बंधक सिपाहियों को नहीं छुड़ाया जा सका था।

और घातक हो रहा पत्ता मरोडिय़ा का वायरस
अमेरिकी और मिस्र कपास के बाद अब देसी में भी तेजी से फैल रहा है पत्ता मरोडिय़ा रोग
 इस बारे में केंद्रीय कृषि अनुसंधान परिषद को बताया गया है। सीआईसीआर ने इस वायरस पर सामूहिक शोध और उसकी रणनीति तय करने के लिए एग्रीकल्चर रिसर्च सेंटर गंगानगर, रीजनल रिसर्च स्टेशन फरीदकोट, पंजाब एग्रीकल्चर यूनिवर्सिटी लुधियाना और चौधरी चरण सिंह हरियाणा एग्रीकल्चर यूनिवर्सिटी के कपास वैज्ञानिकों को लिखा है। सभी रिसर्च सेंटरों से जवाब मिलने के बाद रणनीति तैयार कर शोध किया जाएगा।""

ड ॉ. दिलीप मोंगा, अध्यक्ष, केंद्रीय कपास अनुसंधान केंद्र, सिरसा

विकास यादव & सिरसा
कपास की फसल का दुश्मन पत्ता मरोडिय़ा रोग के वायरस की संरचना में तेजी से बदलाव हो रहा है। इस बदलाव के कारण यह रोग देसी कपास में फैलता जा रहा है। पहले यह रोग केवल अमेरिकन और मिस्र प्रजातियों में ही होता था। पत्ता मरोडिय़ा के वायरस सीएलसीवी में तेजी से आ रहे बदलाव के कारण यह और घातक होता जा रहा है और ऐसी किस्मों में भी पैठ बना चुका है जो पत्ता मरोडिय़ा से बचने के लिए बनाई गई थीं। इस परिवर्तन से परेशान कपास अनुसंधान केंद्रों में हलचल शुरू हो गई है और वैज्ञानिकों के बीच लगातार इसका निदान खोजने की योजना पर बात हो रही है।
कपास की मोटे तौर पर तीन प्रजातियां हैं, मिस्र, अमेरिकन और देसी। पत्ता मरोडिय़ा रोग सबसे पहले 1989 में मिस्र की कपास में देखा गया। इसके बाद दुनिया भर के कपास वैज्ञानिकों ने पत्ता मरोडिय़ा रोग रोधी किस्में तैयार की थी।
पाकिस्तान में 1992 में यह रोग रोधी किस्मों में भी आ गया। इसके बाद वैज्ञानिकों ने वायरस के संरचना बदल जाने के कयास लगाने शुरू कर दिए थे। भारतीय कपास वैज्ञानिकों ने आरएस-2013, एफ-1861, एच-1117, सीएसएचएच-198 आदि पत्ता मरोडिय़ा रोग रोधी किस्में तैयार की थी। जब 2009 में यह रोग भारत में भी पत्ता मरोडिय़ा रोग रोधी किस्मों में भी आया तो इस बात पर मोहर लग गई कि इस रोग के वायरस के डीएनए में अपना स्वरूप बदल रहा है। इस बदलाव की वजह से कपास का 80 से 90 फीसदी उत्पादन प्रभावित हो सकता है।

सिंचाई के लिए होगा लिंक नहर का विस्तार


 कैथल

लोक निर्माण एवं उद्योग मंत्री रणदीप सिंह सुरजेवाला ने शेरगढ़-गुहणा लिंक नहर की बुर्जियों के विस्तारीकरण का शनिवार को शिलान्यास किया।
उन्होंने कहा कि इस क्षेत्र में किसानों को सिंचाई के लिए अंतिम छौर तक पानी पहुंचने से जमीन की प्रति एकड़ उत्पादन क्षमता में उल्लेखनीय वृद्धि होगी। विस्तारीकरण के इस कार्य पर 350 लाख रुपए की धनराशि खर्च होगी। सुरजेवाला ने कहा कि सिंचाई के लिए सरस्वती डिस्ट्रीब्यूटरी से निकलने वाली नहरें जैसे शेरगढ़ माइनर, कैथल सब माइनर, भानपुरा सब माइनर तथा गुहणा सब माइनर पर निर्भर रहा है। यहां तक पानी को पहुंचाने के लिए नरवाना ब्रांच से लगभग 60 किलोमीटर की दूरी है।


दूध में अब नहीं छिप सकेगा यूरिया
हिसार, लाला लाजपत राय पशु चिकित्सा एवं पशु विज्ञान विश्वविद्यालय की व्यावसायिक योजना एवं विकास इकाई व सुरक्षित परिवार द्वारा शनिवार को विश्व पशु चिकित्सक दिवस के अवसर पर दूध में यूरिया की जांच के लिए जागरूकता कैंप का आयोजन किया गया। इस दौरान कैंप में आए किसानों व अन्य लोगों को रासायनिक तत्वों के माध्यम से दूध में छिपे यूरिया की जांच करना सिखाया गया। इस बारे में मुख्य अन्वेषक डा. नरेश कुमार कक्कड़ ने बताया कि दूध की जांच के लिए कैंप में एक किट दिखाई गई है जिसके माध्यम से आप दूध में छिपे यूरिया को पहचान सकते हैं। उन्होंने कहा कि कुछ लोग लाभ कमाने के लिए मिलावटी दूध तैयार करते हैं जिसमें प्रोटीन की मात्रा दिखाने के लिए यूरिया का इस्तेमाल करते हैं। यह स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है। लेकिन इस किट के माध्यम से इसे पहली दृष्टि में ही पकड़ा जा सकता है। उन्होंने कहा कि यह काफी सस्ता होने के साथ इसका इस्तेमाल कहीं भी आसानी से किया जा सकता है। फिलहाल यह किट किसान सेवा केंद्र पर उपलब्ध है। पशु जनस्वास्थ्य एवं रोग व्यापिकी विभाग के विभागाध्यक्ष डा. पीके कपूर ने बताया कि विभाग के दो वैज्ञानिकों डा. गुलशन नारंग व डा. राज सिंह खोखर ने एक विशेष द्रव्य (गुलाबी द्रव्य) की खोज की है। इसका सिर्फ एक बूंद फिल्टर पेपर पर डालने से पता लग जाता है कि दूध में यूरिया है या नहीं। यदि दूध में यूरिया की मिलावट है तो द्रव्य का रंग एकदम पीला हो जाता है, अन्यथा गुलाबी ही बना रहता है। वहीं सुरक्षित परिवार के निदेशक ने बताया कि अनुराग शर्मा ने बताया कि हमारे द्वारा तैयार किए गए रसायन पदार्थ से न केवल यूरिया, बल्कि अन्य मिलावटी पदार्थ की जांच भी की जा सकती है। इस मौके पर विश्र्वविद्यालय के अनुसन्धान निदेशक, डॉ. एसएम चहल, समेत आदि अन्य गणमान्य लोग भी उपस्थित थे।

जल बचेगा तो कल
जल संसाधनों पर जलवायु परिवर्तन के प्रभाव अलग-अलग रूप में सामने आए हैं। मसलन, ग्लेशियरों के पिघलने से हमारी नदियों में पहले जलस्तर बढ़ेगा और फिर एक समय के बाद वे सूखने लगेंगी। इसी प्रकार समुद्र तटीय क्षेत्रों में जलस्तर बढऩे से काफी सारे इलाके डूब सकते हैं, जबकि गर्मी बढऩे से प्राकृतिक कुएं, तालाबों के सूखने का खतरा पैदा होगा। इसलिए इनके खतरों से निपटने के लिए सबसे पहले हमें धरती के तापमान को बढऩे से रोकना होगा। इसके अतिरिक्त ऊर्जा का इस्तेमाल भी सीमित करना होगा, ताकि ग्रीन हाउस गैसों का उत्सर्जन कम हो। धरती कम गरमाए और ग्लेशियरों के पिघलने की रफ्तार भी कम हो।
यह एक कटु सच्चाई है कि लोग पानी की किल्लत से जूझ रहे हैं। हालांकि देश में पानी की कमी नहीं है, लेकिन उसके प्रबंधन की कमी है। वितरण व्यवस्था ठीक नहीं है। फिर यह भी एक तथ्य है कि लोगों द्वारा पानी की बर्बादी बहुत की जाती है। दरअसल, पानी पर शुल्क नगण्य होने के कारण उसका बड़े पैमाने पर दुरुपयोग होता है। इस्तेमाल हो चुके पानी का दोबारा इस्तेमाल न के बराबर है। उदाहरण के लिए, किचन में इस्तेमाल हो चुके पानी का हम इस तरह से प्रबंधन कर सकते हैं, जिससे अपने लॉन की सिंचाई कर सकें। लेकिन दुर्योग से ऐसा बहुत कम हो रहा है। लोग इसके बारे में संजीदगी से सोचते ही नहीं।
इसके साथ ही यह भी जरूरी है कि पानी के इस्तेमाल पर शुल्क बढ़ाया जाए। अनावश्यक सब्सिडी खत्म की जानी चाहिए। देश में 80 प्रतिशत पानी खेती के काम में इस्तेमाल होता है। लेकिन वहां पानी का दुरुपयोग भी बहुत होता है। हमारे देश में सबसे जरूरी यह है कि पानी के व्यावसायिक इस्तेमाल पर शुल्क लगाया जाए। कोई कंपनी या उद्योग पानी का कारोबार कर रहा है, तो करे। वह भी दो पैसे कमाए। लेकिन पानी का दोहन करके उसे बड़े पैमाने पर मुनाफा कमाने की अनुमति नहीं दी जानी चाहिए।
हमारी आबादी लगातार बढ़ रही है। जाहिर है, ऊर्जा की जरूरतें भी बढ़ रही हैं। औद्यौगिकीकरण तेजी से बढ़ रहा है। ऐसे में, स्वाभाविक है कि प्रति व्यक्ति पानी की मांग बढ़ रही है। आने वाले समय में पानी का संकट तो होगा ही। इसके बारे में अनुमान भी लगाए गए हैं। इसीलिए हम बार-बार पानी के संरक्षण और एफिशिएंसी पर जोर दे रहे हैं।
इसके लिए एक तो सरकार को हर घर, फैक्टरी, बिल्डिंग में वाटर हार्वेस्टिंग अनिवार्य कर देनी चाहिए। इससे भूजल रिचार्ज होता रहेगा। दूसरे पानी के दोबारा इस्तेमाल से उसकी एफिशिएंसी बढ़ाई जानी चाहिए। इस दिशा में बड़े पैमाने पर कार्य किए जाने की जरूरत है। हाल ही में मैं ब्रिटेन के गयाना द्वीप पर गया था। वहां बारिश के जमा पानी से ही पूरा रिसॉर्ट चल रहा था। ग्रामीण भारत में भी बारिश के पानी को तालाबों और कुओं में जमा करने की परंपरा थी, अब वह खत्म होती जा रही है। इसे फिर से प्रोत्साहित किया जाना चाहिए। एनडीए सरकार के दौरान पानी के संकट से जूझने के लिए देश की नदियों को जोडऩे की एक महत्वाकांक्षी योजना बनी थी। नदियों को जोडऩे की उस योजना के लिए बनी सुरेश प्रभु के नेतृत्व वाली विशेषज्ञ समिति में मैं भी एक सदस्य था। मैंने तब भी सुझाव दिया था कि इस योजना को तब तक मंजूरी नहीं दी जानी चाहिए, जब तक कि इसके पारिस्थितिकीय एवं पर्यावरणिक प्रभावों का व्यापक वैज्ञानिक अध्ययन नहीं हो जाता। आज भी मैं अपनी इसी बात पर कायम हूं। मेरा मानना है कि पानी के संरक्षण के लिए इतनी बड़ी योजना के बजाय क्षेत्रवार छोटी योजनाओं पर ज्यादा ध्यान दिए जाने की जरूरत है। वे कहीं ज्यादा प्रभावी होंगी तथा पर्यावरण के लिए भी उनके दुष्प्रभाव नहीं होंगे। एक और सुझाव समुद्री पानी के इस्तेमाल का है। यह मुमकिन है, लेकिन दो बातों पर ध्यान देना होगा। इस पानी को इस्तेमाल के लायक बनाने के लिए जो प्रोजेक्ट लगें, उनमें ऊर्जा की खपत कम से कम हो और फिर पानी को साफ करने की प्रति लीटर लागत कम आए। एक खतरा यह है कि समुद्र का जलस्तर बढऩे से आने वाले समय में खारा पानी तटीय इलाकों की जमीन में भी घुस जाएगा। इस प्रकार वहां का भूजल भी समुद्री जल की तरह खारा हो जाएगा। इसलिए समुद्र के खारे पानी को पीने योग्य बनाने की नई तकनीकों पर आगे कार्य होना ही चाहिए।
जो क्षेत्र पर्यावरण की दृष्टि से बेहद संवेदनशील हैं,वहां पर्यावरण के साथ छेड़छाड़ नहीं की जानी चाहिए। यहां मैं पर्वतीय क्षेत्रों का उदाहरण देना चाहूंगा। उत्तराखंड में एक पहाड़ी जगह है मुक्तेश्वर। बेहद सुंदर जगह है। वनों के बीच स्थित इस क्षेत्र में पानी की पहले से ही भारी समस्या है। लेकिन हाल के वर्षो में यहां बड़े पैमाने पर निर्माण कार्य शुरू हुए हैं। खासकर अपार्टमेंट, रिसॉर्ट आदि खुले रहे हैं। इससे पूरे क्षेत्र की पारिस्थितिकी के लिए संकट पैदा हो गया है।

हम यहां वाटर हार्वेस्टिंग पर कार्य कर रहे हैं,लेकिन जिस प्रकार से यहां निर्माण कार्य हो रहे हैं और निगरानी तंत्र कुछ नहीं है, उससे आने वाले समय में यहां गंभीर मुश्किलें पैदा हो सकती हैं। ऐसा और भी जगहों पर हो रहा है। हिमाचल प्रदेश व पूर्वोत्तर के पहाड़ी राज्यों में भी ऐसी ही गतिविधियां चल रही हैं। पर्यावरण की दृष्टि से संवेदनशील क्षेत्रों के लिए विशेष निगरानी नीति बनाए जाने की जरूरत है।
भ्रष्टाचार व मंहगाई के लिए कांग्रेस दोषी
सर्वेक्षण के अनुसार अधिकांश जनमत भ्रष्टाचार के विकराल स्वरूप और मंहगाई के लिए सत्तारूढ़ कांग्रेस के कुप्रबन्धन को उत्तरदायी मानता है। साथ भ्रष्टाचार,मंहगाई आदि के लिए केन्द्र में राजनीतिक दलों के गठबंधन को कोई हिमालयी बाधा नहीं मानता है। देशव्यापी सर्वेक्षण का निष्कर्ष है कि केन्द्र में राजसत्ता के तीन समानान्तर केन्द्र होने से राजनीतिक बदइंतजामी पैदा हुई। देशव्यापी सर्वेक्षण का निष्कर्ष है कि केन्द्र में राजसत्ता के तीन समानान्तर केन्द्र होने से राजनीतिक बदइंतजामी पैदा हुई। अधिकांश जनमत ने भ्रष्टचार, मंहगाई के महापौर में हिन्दू आतंकवाद की परिकल्पना को भूलभूत रूप से खारिज किया। अधिकांश जनमत का मानना है कि कांग्रेस अध्यक्ष श्रीमती सोनिया गांधी के हाथ में कांग्रेनीत संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन की नकेल होने से भ्रष्टाचार में लिप्त उत्ताधारी मंत्रियों, राजनेताओं, नौकरशाहों के विरुद्ध कठोरतम कार्यवाही करनी थी । लेकिन संप्रग की पहली पारी और संप्रग की दूसरी पारी में श्रीमती सोनिया गांधी समय पर भ्रष्टाचार पर प्रहार में विफल रही है। इसके विपरीत अधिकांश जनमत प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह को ईमानदार, सत्यनिष्ठ मानते हुए भ्रष्टाचार के विरूद्ध असहाय मानता है। जिसके फलस्वरुप डॉ. मनमोहन सिंह की निजी छवि पर प्रतिकूल असर पड़ा है। उल्लेखनीय यह है कि जनमत सर्वेक्षण में अधिकांश ने जनता पार्टी अध्यक्ष डॉ. सुब्रमण्यम स्वामी द्वारा कांग्रेस अध्यक्ष श्रीमती सोनिया गांधी की दोनों बहिनों सुश्री अनुष्का, सुश्री नाडिया द्वारा 2जी स्पेक्ट्रम दूर संचार महाघोटाले में 18000 करोड़ रुपए, 18000 करोड़ रुपए (कुल 36000 करोड़ रुपये) की दलाली लेने के सनसनीखेज आरोप की खुली जांच चाही है। डॉ. सुब्रमण्यम स्वामी ने 24 नवम्बर,2010 केा प्रधानमंत्री डॉ1 मनमोहन सिंह को एक पत्र भेजकर आरोप लगाया था। सर्वेक्षण में 61.8 प्रतिशत जनमत का कहना है कि अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी और प्रधानमंत्री कार्यालय को इस अतिगम्भीर आरोप का स्पष्टीकरण देना चाहिए। कांगे्रस पदाधिकारी इस आरोप को गलत कहते हैं। वैसे 72.3 प्रतिश जनमत के केन्द्रीय महालेखा नियंत्रक एवं परीक्षक (सी.ए.जी.) के रपट में 2जी स्पेक्ट्रम दूरसंचार लाइसेंस प्रक्रिया से 1.75 लाख करोड़ रुपए की हानि को विश्वसनीय माना है। केन्द्रीय महालेखा नियंत्रक एवं परीक्षक संवैधानिक पद है। इसलिए कांग्रेस और केन्द्र सरकार को सी.ए.जी. की गरिमा बनाये रखनी चाहिए। देश 3/4 बुद्धिजीवी वर्ग चाहता है कि सभी 2जी स्पेक्ट्रम लाइसेंस पुन: उनकी नीलामी की जाए। ताकि 2जी स्पेक्ट्रम लाइसेंस विवाद की सत्यता सामने आये। सभी वर्गो के 2/3 जनमत की मान्यता है कि दूरसंचार लाइसेंस मामले पर संयुक्त संसदीय जांच समिति (जे.पी.सी.) गठित करने में कोई हानि नहीं है। देशव्यापी सर्वेक्षण में 59 प्रतिशत जनमत का कहना है कि भ्रष्टाचार के मामलों की स्वतंत्र एवं निष्पक्ष जांच करनेवाले संवैधानिक पद केन्द्रीय मुख्य सतर्कता आयुक्त (सी.वी.सी.) पी.जे.थामस पर ही भ्रष्टाचार के आरोपों ने नई समस्या उत्पन्न की है। जनमत का मानना है कि आरोपित सी.वी.सी. के कारण भ्रष्टाचार के सफाये पर यक्षप्रश्र उड़ खड़े हुए हैं। बौद्धिकों में 54.6 प्रतिशत का मत है कि लोकसभा में प्रतिपक्ष की नेता द्वारा आपत्ति के बाद सी.वी.सी. पर थामस की तैनातगी पर ही प्रश्न चिन्ह लगता है। क्योंकि केन्द्रीय खुफिया ब्यूरो (सी.बी.आई.) के निदेशक के चयन में सी.वी.सी. की अहम भूमिका रहती है। अधिकांश जनमत चाहता है कि संवैधानिक पदों के प्रति आमजन में अविश्वास उत्पन्न होता है। अधिकांश जनमत की राय में भ्रष्टाचार की जांच करने वाला सर्वोच्च अधिकारी सन्देहों से दूर होना बुनियादी शर्त है। अधिकांश जनमत की मांग है कि केंद्र सरकार तत्काल केंद्रीय लोकपाल विधेयक लाये। केंद्रीय लोकपाल को प्रधानमंत्री सहित केंद्रीय मंत्रियों के विरुद्ध भ्रष्टाचार के आरोपों की जांच का व्यापक अधिकार हो। सर्वोच्च न्यायालय के सत्यनिष्ठ न्यायाधीश को केंद्रीय लोकपाल नियुक्त किया जाए। सर्वेक्षण में 70 प्रतिशत जनमत ने आश्चर्य व्यक्त किया कि सी.ए.जी. द्वारा राष्ट्रमंडलीय खेलों (सी.डब्ल्यू.जी.) में 70000 करोड़ रुपए की अनियमितताओं की रपट के बावजूद बड़ी मछलियों पर कोई कार्रवाई नहीं हुई। राष्ट्रमंडलीय खेलों में केंद्रीय शहरी पूर्व खेल मंत्री एम.एम. गिल, खेल सचिव सिंधु श्री खुल्लर, राज्यपाल तेजेन्द्र खन्ना, खेल आयोजन समिति के पूर्व प्रमुख सुरेशी कलमाडी आदि की भूमिका पर प्रश्न उठे थे? अधिकांश जनमत जानना चाहता है कि वी.के. शिंगलू -शान्तनु कंसल समिति ने 90 दिन में क्या रपट दी। सर्वेक्षण में 48 प्रतिशत जनमत का प्रश्र है कि मुंबई के आदर्श हाउसिंग सोसायटी के महाकांड में पूर्व मुख्यमंत्री अशोक चौहाण के अलावा सामने आये दूसरे राजनेताओं के विरुद्ध कदम क्यों नहीं उठाए गए? इसके पीछे क्या राजनीतिक विवशताऐं हैं? स्मरण रहे कि महाराष्ट्र कांगे्रस का एक शक्तिशाली खेमा मुंबई में इसी तरह की दूसरी आवासीय सोसायटी के विरुद्ध कार्रवाही की मांग कर रहा है। महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री ने मुुंबई में राजनेता-नौकरशाह बिलडर तिकड़ी की खुलकर आलोचना की है। इससे महाराष्ट्र में राजनीतिक भूचाल आया है। महाराष्ट्र में ही लावासा परियोजना के निर्माण पर केंद्रीय पर्यावरण मंत्री और राष्ट्रवादी कांगे्रस पार्टी आमने-सामने है। अधिकांश जनमत ने देश के प्रतिरक्षा मंत्रालय द्वारा 55000 करोड़ रुपए के लड़ाकू जंगी वायुयान खरीद की गोपनीयतम, संवेदनशील फाईल सडक़ के किनारे मिलने को गंभीर माना है। अधिकांश जनमत की नजर में केंद्रीय आयक अपील अधिकरण (आईटीएटी) द्वारा बोफोर्स तोप सौदे में चिन्हित हथियार व्यापारी विन चढढ़ा और इटली के कारोबारी आटेबियो चत्रोची रो आयकर लेने के आदेश को दलाली की पुष्टि मानता है। इसके अलावा देश के 82 प्रतिशत जनमत ने स्विस बैंकों में जमा भारतीयों के 8000000 करोड़ रुपए की सूची सार्वजनिक करने की पैरवी की है। जनमत का राय में स्विस बैंकों में खाताधारकों और जमा धन राशि का ब्यौरा जनता के सामने पेश किया जाना चाहिए। बुद्धिजीवी वर्ग में 75 प्रतिशत का मत है कि केंद्रीय सरकार 8000000 करोड़ रुपए स्विस बैंक में जमाकर्ताओं को कानूनन माफी देकर यह धनराशि भारत लाए। इस धन राशि से देश की अर्थव्यवस्था का कायाकल्प संभव है। सर्वेक्षण में अधिकांश ने केंद्रीय वित्त मत्री प्रो. प्रणव मुखर्जी द्वारा स्विस बैंकों से जमा भारतीय धन के बारे में समझौते (सरकार स्तर पर सराहना की। स्मरण रहे कि पूर्व राजस्व सचिव जावेद चौधरी आदि नौकरशाही ने सर्वोच्च न्यायालय में स्विस बैंक सूची उजागर करने की मांग की है। सभी वर्गों के 67.8 प्रतिशत जनमत चाहता है कि शीर्ष पदों पर भ्रष्टाचार की गंगोत्री को रोका जाना चाहिए। सभी राजनीतिक दल भ्रष्टाचार प्रकरणों में आरोपितों के विरुद्ध पुख्ता प्रमाण आते ही राजनेता, मंत्री पदाधिकारी को पद से हटाये। सर्वेक्षण में देश के सबसे बड़े 2 लाख करोड़ रुपए के उत्तरप्रदेश के सार्वजनिक वितरण योजना (पी.डी.एस.) के महाघोटाले को देखते हुए देश के सभी प्रदेशों में पी.डी.एस. की जांच चाही है। कुछ राज्यों में भी अरबों रुपए के खाद्यान्न महाघोटाले के आरोप लगे हैं। इसका सबसे भयावह पक्ष यह है कि देश में प्रतिदिन 47 किसान आर्थिक बदहाली, भुखमरी से आत्महत्या कर रहे हैं। उधर अरबों रुपए के पी.डी.एस. अनाज की कालाबाजारी हो रही है। सर्वेक्षण में अधिकांश जनमत ने शिखरीय भ्रष्टाचार के कारण गांव, तहसील, कस्बा, शहर तक भ्रष्टाचार के दरिया बहने को चिंताजनक माना है। परिणामस्वरूप लोकतंत्र के स्तभों को भ्रष्टाचार ने खोखला किया है। सर्वेक्षण का निष्कर्ष है कि पिछले वर्षों में भ्रष्टाचार के हर पखवाड़े एक महाकांड के सनसनीखेज रहस्योदघाटन से आम जनमत कुपित है।सर्वेक्षण में 70.9 प्रतिशत जनमत का विचार है कि देश के 18-40 वर्षीय 18-40 वर्षीय 41 करोड़ युवां मतदाताओं में भ्रष्टाचार के विरुद्ध अलख जमाने की आवश्यकता है।दूसरे, देश के आम नागरिकों में भ्रष्टाचार के विरुद्ध असहायता की अवधारणा तोडऩे की जरूरत है। सर्वेक्षण का मानना है कि कांग्रेसनीत संप्रग सरकार की दूसरी पारी में अभूतपूर्व भ्रष्टाचार प्रकरणों ने सत्ताधारी गठबंधन के घटक दलों की विश्वसनीयता पर ही सवालिया निशान लगाया है। जिसके कारण कांगे्रस नीत संप्रग को आगामी चुनाव में हानि उठानी पड़ सकती है।

देश की समृद्घि और आम आदमी की हालात पर कुछ सवाल

हर साल की तरह इस साल भी गणतंत्र दिवस धूमधाम के साथ संपन्न हो गया। दिल्ली के राजपथ से लेकर राज्यों की राजधानियों में देश की समृद्घ परंपरा को दर्शाने वाले कार्यक्रम परंपरागत ढंग से किए गए। इस साल दिल्ली के राजपथ पर पिछले साल की अपेक्षा कहीं च्यादा सैन्य-प्रदर्शन किया गया। निश्चित ही इससे देश की सैन्य क्षमता का पता चलता है । इसी तरह राज्यों और मंत्रालयों की सांस्कृतिक झंाकियों के जरिए देश की गौरवमयी विरासत, आर्थिक समृद्घि, लोक संस्कृति, लोक कला और देश के विकास की एक बेहतर झलक देखने को मिली। इससे तो यह कहा ही जा सकता है कि देश संविधान लागू होने के बाद, प्रगति और समृद्घि के मामले में बेहतर स्थिति में आ गया है । राजपथ पर गणतंत्र दिवस के मौके पर किए गए प्रदर्शन से यदि देश की सांस्कृतिक, आर्थिक और सैन्य प्रगति का आकलन करें तो यह कोई नहीं कह सकता कि देश अभी विकासशील देशों में १६९वें स्थान पर है ।

यह भी कोई नहीं कह सकता कि सांस्कृतिक, सैन्य क्षमता और लोक-संस्कृति व कलाओं के मामले में हमारी उन्नति नहीं हुई है। और यह तो कोई कह ही नहीं सकता कि भारत अब उन दुनिया के इनेगिने देशों में शामिल नहीं हुआ है जो दुनिया को नई दिशा देने का कार्य करते हैं। लेकिन इसी के साथ एक बहुत ब$डा सवाल यह उठता है कि राजपथ पर झांकियों व सैन्य क्षमता के प्रदर्शन से देश की बेहतरी या देश का चहुमुखी विकास के सरकारी उद्घोष को सही माना जा सकता है? क्या प्रदर्शन और जमीनी हकीकत में जमीन और आकाश का अंतर नहीं है? दरअसल, सरकारी प्रदर्शन और हकीकत में कहीं भी संतुलन नहीं दिखाई देता। यदि संतुलन होता तो आए दिन देश में समस्याओं, संकटों, घटनाओं, वारदातों और अन्याय तथा जुल्म का ग्राफ इस तरह न बढता। देश की प्रगति की बात करें तो लगता है प्रगति तो हुई, लेकिन वह आधी-अधूरी है । संतुलित और मानवीय तरीके से नहीं हुई । यह बात गाहे-बगाहे केंद्र सरकार भी दबी जुबान से मानती है । लेकिन सरकार यह मानने के लिए कतई तैयार नहीं है कि देश की तरक्की का जो ‘पैमाना’ या ‘प्रमाण’ मीडिया के जरिए आम जनता तक पहुंचाती है उसमें और हकीकत में किसी भी स्तर पर संतुलन नहीं है । और दूसरी बात जिसपर गौर करने की जरूरत है वह संविधान लागू होने के बाद जनता की जान-माल की सुरक्षा, शिक्षा, स्वास्थ्य और भरपेट भोजन की है । केंद्र सरकार का मानना है कि ये दोनों चीजें राज्य सरकारों के दायरे में आती हैं। यानी समस्याओं को निपटाने की सारी जिम्मेदारी महज राज्य सरकारों की है, केंद्र से उनका कोई लेना-देना नहीं। फिर सवाल उठता है राजकीय पर्वों और दूूसरे मौके पर केंद्र सरकार द्वारा देश की जो तस्वीर पेश की जाती है, वह क्या राज्यों की तस्वीर से अलग होती हैं? मान लें, दुनिया को दिखाने के लिए, राजकाज का यह अहम हिस्सा है लेकिन जनता के सामने देश की प्रगति के जो आंकड़े पेश किए जाएं उसमें किसी स्तर पर तो एकरूपता तो होनी ही चाहिए। और यदि देखा जाए तो जो आंकड़े केंद्र और राज्य सरकारें पेश करती हैं और जो सर्वेक्षण एजेंसियों के जरिए प्रस्तुत किए जाते हैं उनमें कहीं भी एकरूपता नहीं दिखाई देती है । पिछले आर्थिक सर्वेक्षण की रपट से भी यह बाखूबी साबित हो जाता है। संविधान में सबको रोटी, कपड़ा और मकान का बंदोबस्त करने की जिम्मेदारी शासन की बताई गई है । इसी तरह सुरक्षा और शिक्षा की गारंटी भी शासन के जिम्मे है। इतना ही नहीं, अपराध, भ्रष्टाचार, कुकर्म और शोषण रोकने की भी पूरी जिम्मेदारी शासन की है । लेकिन संविधान और कानून, दोनों के मामले में आजादी के ६३ साल भी गम्भीर सवाल खड़े किए जाते रहे हैं। यहां तक मौजूदा संविधान पर ही सवालिया निशान बनाए जाते रहे हैं। देश ने प्रगति की भी है, तो वह एकतरफा है । आजादी के बाद यदि आंकड़ों के तह में जाएं तो पता चलता है इस देश में तीस करोड़ लोगों को अब भी ठीक से निवाले का प्रबंध नहीं पाता है । इसी तरह आधी जनता आज भी विकास की रोशनी से महरूम है । १० करोड़ के लगभग बाल मजदूर और ५० करोड़ लोगों के पास कोई रोजगार नहीं है ।

दरअसल, देश का विकास तो हुआ है लेकिन वह विकास एक तरफा हुआ है । बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के जरिए विकास के मॉडल का विकास हुआ है । नए बाजार तंत्र को खड़ा करने वाला विकास हुआ है । अरब और खरबपतियों की तादाद देश में बढ़ी है। सैन्य क्षमता भी खूब बढ़ी है। कल-कारखाने भी खूब स्थापित हुए हैं। सडक़े, सुविधाएं, संसाधनों का इस्तेमाल में भी हम बहुत आगे निकल गए हैं। खादान्न के मामले में भी हम आत्मनिर्भर हुए हैं। यानी हर मामले में देश ने तरक्की की है, लेकिन सवाल यह है कि इससे आम जनता को कितना लाभ पहुंचा है? गैरबराबरी कितनी कम हुई है? शोषण, जुल्म, अपराध, कुकर्म और भ्रष्टाचार के मामले में देश की क्या स्थिति है? शिक्षा, स्वास्थ्य, पोषण, रोजगार और खुशहाली की धारा कितनी आगे बढ़ी है? यदि तथाकथित विकास की बात करें तो विकास और विनाश साथ-साथ हो रहा है । जितनी गैरबराबरी देश में आज है उतनी कभी नहीं रही। जिनता अपराध आज है उतना कभी नहीं रहा। जितना शोषण आज है उतना कभी नहीं रहा। और जितना भ्रष्टाचार आज है देश के इतिहास में कभी नहीं रहा। इस लिए हम राजपथ पर महज झांकियों से ही देश की समृद्घि और महान विरासत का आकलन करें तो यह हम देश, संस्कृति और करोड़ों लोगों के साथ तो अन्याय करेंगे ही, अपने साथ भी न्याय नहीं करेंगे। गांधी जी के मुताबिक तब तक देश के अंतिम आदमी के पास विकास की रोशनी नहीं पहुंचती है, खुशहाली अधूरी ही मानी जाएगी। दरअसल, जो सरकार के जरिए दिखाया जाता है उनमें, और हकीकत में किसी भी स्तर पर तालमेल देखने को नहीं मिलता है । इस लिए इसे हम विकास का उद्घोष ही मान सकते हैं । उद्घोष को कार्यान्वित करने का मुकम्मल बंदोबस्त जब तक नहीं हो जाता, देश में वास्तविक खुशहाली न आ सकती है और न ही प्रगति की निर्मल धारा ही प्रवाहित हो सकती है । दर्शन-प्रदर्शन और हकीकत में मेल तो होना ही चाहिए।

लेखक  समाजकर्मी हैं
यदि हम न चेते तो एक दिन धरती की कराह आह बनकर सब कुछ लील लेगी।
 लुधियाना : यदि हम न चेते तो एक दिन धरती की कराह आह बनकर सब कुछ लील लेगी। जिस तरीके से भोगवाद के युग में इंसान अपने स्वार्थो की पूर्ति के लिए कुदरती स्त्रोतों का बेरहमी से दोहन कर रहा है उससे न धरती पर पानी ही बचेगा और न ही इस धरा पर ऐसे हालातों में जीवन ही संभव होगा। देश के खाद्यान्न कोटे में दो तिहाई से ज्यादा योगदान देने वाली पंजाब की पावन मानी जाती धरती के हालात भी कुछ ऐसे ही है। साठ के दशक में अन्न की पैदावार बढ़ाने के लिए देश में हरित क्रांति का नारा दिया गया और पंजाब अगुवा बना। पैदावार बढ़ाने में यह नारा तो सफल रहा लेकिन रासायनिक उर्वरकों व कीटनाशकों के अंधाधुंध प्रयोग और भूमिगत जल के अंधाधुंध दोहन ने प्रदेश के सामने बहुत बड़ी समस्या पैदा कर दी। जहां मृदा की उत्पादकता कम हो गई है वहीं पर जल स्तर नीचे जाने के साथ जहरीला भी हो गया है। यहां तक कि नदियों का जल भी इतना ज्यादा प्रदूषित हो गया है कि वह सिंचाई के लायक भी नहीं बचा है। यूरिया इत्यादि रासायनिक खादों का इस्तेमाल करता रहा तो नाइट्रेट नाइट्रोजन की मात्रा बहुत बढ़ जाएगी। यह दस पीपीएम होनी चाहिए, लेकिन मौजूदा समय में यह कई गुना बढ़ गई है। इससे पानी विषैला हो रहा है और मानव के स्वास्थ्य पर बुरा असर पड़ रहा है। प्रदूषण की सबसे ज्यादा मार मालवा की लाइफ लाइन कही जाती घग्गर नदी पर पड़ी है। यह नदी कब नाले में बदल गई किसी को खबर ही नहीं लगी। राजस्व विभाग के आंकड़े बताते हैं कि इस नदी का पानी पहले इतना साफ था कि इसमें पटियाला के समाना से गुरदयालपुरा बीड़ तक मछली पकड़ने के ठेके दिए जाते थे। पंजाब प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (पीपीसीबी) के मुताबिक इस समय इसका पानी तेजाबी हो चुका है और इसमें कोई भी मछली 96घंटे से ज्यादा समय तक जिंदा नहीं रह सकती। पीपीसीबी के एक सर्वे के मुताबिक इससे सींची गई सब्जियों में शीशा, कैडमियम, क्रोमियम व लोहा तय सीमा से कई गुना ज्यादा पाया गया है। सतलुज में कभी मछलियों की 55 किस्में पाई जाती थीं लेकिन आज हालात यह है कि लुधियाना पार करते ही नदी का ही वजूद खत्म हो जाता है। लुधियाना में बुड्ढा नाला इसके सबसे बड़ा कारक है। इसके माध्यम से महानगर के सीवरेज व औद्योगिक इकाइयों का रसायनयुक्त पानी इस नदी में गिरता है। प्रदूषण रोकने के लिए सतलुज एक्शन प्लान आज तक लागू नहीं हो सका। बुढ्डा नाला में प्रदूषित पानी जाने से रोकने को कदम उठाने के लिए हाईकोर्ट के निर्देश पर पी. राम कमेटी बनाई गई, लेकिन अभी तक संतोषजनक नतीजे प्राप्त नहीं हुए हैं।